



रिपोर्ट- नैनीताल
नैनीताल- उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में किसी भी शुभ-कार्य की शुरुआत “शकुनाखर” गाकर की जाती है।
यह कुमांऊनी संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ‘शकुनाखर’ का शाब्दिक अर्थ है ‘शकुन’ के शब्द यदि संधि विच्छेद किया जाए तो शकुन + आखर से मिलकर बना यह शब्द स्वयं ही समझ आता है कि शुभ कार्य के लिए प्रयोग किया जाता है।
कुमाऊं अंचल में हर शुभ-कार्य चाहे वह बच्चे का जन्म,छठी, नामकरण,मुंडन,यज्ञोपवीत या फिर विवाह हो प्रत्येक अवसर की शुरुआत इन्हीं गीतों से होती है।

शकुनाखर गाए जाने का एक विशेष तरीका होता है एक अपनी अलग तर्ज होती है।
यूं तो इनकी तर्ज में आंचलिक भाषा में थोड़ा-बहुत बदलाव के चलते कुछ अंतर देखा गया है किंतु फिर भी इन गीतों की लहक काफी हद तक समान रहती है।
यदि पिथौरागढ़ की तरफ जाएं तो वहां पर गाए जाने वाले शकुनाखर की तर्ज,भाषा बोली की भिन्नता के चलते थोड़ा अलग होगी लोहाघाट की ओर बढ़ें तो तर्ज में कुछ अंतर लगेगा और अल्मोड़ा की तरफ जाने पर तर्ज कुछ अलग होगी।

क्योंकि कुमाऊं मंडल में हर 20 किलोमीटर पर बोली में थोड़ा अंतर पाया जाता है किंतु फिर भी इनकी लहक और भाव समान रहता है।
शकुनाखर की शुरुआत होती है इस गीत से-
शकुना दे…शकुना दे
काज ए…
अति नीका… सो रंगीलो
पाटलै…………………..
इसको गाने के पश्चात गणेश स्तुति,न्यौता देना,मातृ पूजा,ज्यूंति,आपदेव, पुण्यावाचन,कलश स्थापन, नवग्रह पूजा आदि के लिए भी शकुनाखर गाए जाते हैं।
संध्या के समय भी शकुनाखर के साथ ही दीप प्रज्वलित किया जाता है।
इस समय पर गाए जाने वाले गीत के बोल हैं-
सांझ पड़ी संज वाली…पाया चलिन एना
आस पास मोत्यूं धार…बीच चलिन गंगा।
यूं तो अलग-अलग काज में गाए जाने वाले गीत भी अलग ही होते हैं लेकिन जिन शकुनाखर गीतों का ऊपर वर्णन किया गया है, वह हर काज में उभयनिष्ठ होते हैं। जिनमें ईष्टदेव,देवी-देवताओं तथा पितरों का स्मरण करते हुए काज के निर्विघ्न संपन्न होने की कामना की जाती है।
शकुनाखर गाए जाने की हमारी यह परंपरा धीरे-थीरे समाप्ति की ओर है। गिने चुने ही लोग बचे हैं जिनको इन गीतों का ज्ञान है।युवा पीढ़ी तो इनसे लगभग अनभिज्ञ ही हो चुकी है।
अपनी विलुप्त होती इस परंपरा को जीवित रखने के लिए युवाओं को आगे आना होगा ताकि उत्तराखंड की यह ‘संभ्रांत संस्कृति’ जीवित रह सके।
आलेख:- किरन पंत ‘उत्तरा’





