विशेष:- धेई द्वार म्वाव पूजा- धेई(द्वार/देली/देहली/देहरी) ऐपण:- आलेख:- बृज मोहन जोशी

विशेष:- धेई द्वार म्वाव पूजा- धेई(द्वार/देली/देहली/देहरी) ऐपण:- आलेख:- बृज मोहन जोशी

रिपोर्ट- नैनीताल
नैनीताल- ऐपण की परम्परा कुमांऊनी समाज में ही प्रचलित रही है। इस लोक चित्रकला ऐपण का मुख्य उल्लेखनीय पक्ष यह है कि इसमें यथार्थ चित्रण कि अपेक्षा प्रतिकात्मक चित्रण की प्रधानता रहती है और कहा जा सकता है कि कुमांऊनी लोक चित्रकला ऐपण मात्र अभिव्यक्ति का साधन ही नहीं है वरन इसमें धर्म, दर्शन एवं संस्कृति के तत्व भी अनुप्राणित हैं।
धरातलीय आलेखन ऐपण की यह परम्परा बहुत प्राचीन है ऐसा प्रतित होता है कि घर के प्रवेश द्वार (धेई) आलेखन की यह परम्परा यक्ष संस्कृति की देन है।
धेई, द्वारम्वाव पूजा से पहले गृहणीयां गोबर व मिट्टी की सहायता से पहले धेई की लिपाई करती हैं, उसके उपरांत गेरू मिट्टी से उसे ‌लिपती हैं उसके बाद भिगोये चावलों को पीसकर उसके अर्घ (बिस्वार)की सहायता से अपने हाथ की अंगुलियों की सहायता से ऐपण देती हैं।
धेई मे ऐपण देने के उपरान्त इसको लांघने या इस पर पैर रखने से पहले इस पर दूब घास के हरे हरे तिनके शुभ लाभ के प्रतीक रूप में डाले जाते हैं।
महाकवि कालिदास कुमाऊं में प्रचलित (धेई पूजा) की परम्परा से प्रभावित हुए।
उन्होंने (मेघ दूत) में पर्वतीय क्षेत्र की महिलाओं के द्वारा दरवाजे को गैरिक रंगों से लीपने तथा उस पर शंख,कमल आदि बनाने और उस पर पुष्प चढ़ाने का उल्लेख किया है। कुमाऊं अंचल में ऐसा कोई भी पर्वोत्सव नहीं, अनुष्ठान नहीं, उत्सव नहीं है, संस्कार नहीं है जिसमें सबसे पहले धेई पर ऐपण न दिये जाते हों।
भारतीय नववर्ष चैत्र प्रतिपदा के स्वागत का पर्व है फूल सग्यान अर्थात फूलदेई।

यह लोक पर्व धेई से जुड़ा है ऋतु परिवर्तन का पर्व है, खुशहाली के आगमन का पर्व है और हिमालय कि निचली घाटियों में तो इसे यहां इसे राष्ट्रीय त्यौहार के रूप में मनाते हैं।
इस लोक पर्व फूल संक्रांति के दिन इस अंचल में इस दिन नन्हें नन्हें बालक और बालिकाओं के द्वारा पहले अपने अपने घरों में फिर आस पड़ौस मैं जाकर ध्येई पूजन किया जाता है।
इस अंचल में ध्येई पूजन के विविध रूप हमें देखने को मिलते है।
यह प्रकिया विषुवत संक्रांति (बिखौती) तक यहां चलती है।
संयुक्त परिवारों में तो घर कि वृद्ध गृहणियां अपनी बहू बेटियों को प्रातः काल अक्सर इस बात के लिए टोकती थी कि ध्येई मैं कम से कम चार धाण तो दि दि यो।
अर्थात रोज के दैनिक कार्यों कि भांति प्रतिदिन प्रातः काल में घर कि गृहणियां धेई में ऐपण देती थी। कन्या(वधू) को विवाह के बाद ससुराल पहुंचने पर गृह मैं प्रवेश करने से पूर्व ऐपण कला में अपनी निपुणता का परिचय धेई मैं ऐपण देकर करना पड़ता था। यह उसके व उसके मायके के सम्मान का प्रश्न भी होता था। इस बात से ही इस कला के महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है।
इससे घर की शोभा तो बढ़ ही जाती है और शुभ कार्य की झलक भी प्रतीत होती है।
आप सभी को फूल संक्रांति के पावन पर्व कि हार्दिक बधाई।

उत्तराखंड