रिपोर्ट- राजू पाण्डे
नैनीताल- शिव सास्वत हैं शिव सत्य हैं और शिव ही सुंदर हैं शिव पालक भी हैं और विनाशक भी इन्ही सास्वत शिव की आराधना से जुड़ा है उत्तराखंड के वाद्ययंत्रों का इतिहास। यहा के ढोल,दमाऊ आदि वाद्ययंत्रों की परम्परा 6 हजार वर्षों से भी पुरानी है चूंकि उत्तराखंड का सीधा नाता हिमालय से रहा है और ऐसी मान्यता है कि शिव का वास स्थान भी हिमालय ही है और अपने आराध्य शिव की उपासना के लिये हजारों वर्ष पूर्व इन वाद्ययंत्रों की परम्परा शुरू हुई होगी।
इन वाद्ययंत्रों के आविष्कार में हमारे पूर्वजों की अहम भूमिका रही समाज का अभिन्न अंग रहे शिल्पियों ने मरे हुवे जानवरो की खाल में प्राण फूँककर इन्हें मूर्त रूप दिया भले ही आज यहा के वाद्ययंत्रों ढोल,दमाऊ,हुड़का व नगाड़ा आदि के श्रोता बहुत है और इन्हें बजाने वाले भी पर क्या हमने कभी इनकी नींव में झांकने की कोशिश की जो इन्हें मूर्त रुप देते है जो मरे हुवे जानवरो की खाल से इसे आकर देते है क्या कभी उन तक पहुचने की कोशिश की गई शायद नही यदि की होती तो आज फुन राम जैसे शिल्पकार खुद अपने ही बनाये ढोल की थाप के शोर में गुम नही होते।।।
पिथौरागढ़ जिले से करीब 53 किलोमीटर दूर न्वाली गांव के रहने वाले 83 वर्षीय फुन राम की कहानी भी अनदेखी की दास्तां बया करती है इनके द्वारा बनाये गये वाद्ययंत्रों को आज बजाने और सुनने वाले तो बहुत है मगर जो इसको मूर्त रूप देने मे अपना पूरा जीवन समर्पित किये है वो पूरी तरह से अलग-थलग पड़े है। हालांकि राज्य सरकार अब इस दिशा मे कार्य करने की बात जरूर कर रही है और गढ़वाल में मौजूद ढोल सागर ग्रंथ को खंगालने के साथ ही सकारात्मक कदम उठाने का दावा भी कर रही है।।
लेकिन मात्र दावो से कुछ नही होगा आज जरूरत है फुन राम जैसे शिल्पकारों को आगे बढ़ाने की तांकि उनकी ये कला आगे बड़े,संरक्षित हो और उनका बेशकीमती हुनर उनके साथ दम ना तोड़े और भावी पीढ़ी इसको जाने,पहचाने और सीखे और हमारी ये धरोहर युगों युगों सुरमय रहे।।।।।