रिपोर्ट- संतोष बोरा
नैनीताल- देवभूमि उत्तराखंड में पूरे चैत्र मास की शुरुआत होते ही किसी भी एक दिन विवाहित लड़की के घर जाकर उसके मायके वाले उससेे मुलाकात करते है और उसे उपहार स्वरूप फल,मिठाई व वस्त्र आदि भेंट करते (भिटौली देने जाते है) है।
फूल देई या फूल संक्रांति जो चैत्र मास की संक्रांति या चैत्र मास के प्रथम दिन मनाया जाता है और इस दिन से हिंदू नव वर्ष प्रारंभ होता है इसी दिन से पूरे चैत्र मास में हर विवाहित लड़की को उसके मायके से भेंट दी जाती है जिसे भिटौली कहते हैं यह एक व्यवसायिक विशिष्ट उत्तराखंडी परंपरा हैं और हर विवाहित महिला के लिए यह खास है।
भिटौली का मतलब है भेंट करना या मुलाकात करना अपनी विवाहित बेटी या बहन से चैत्र मास के पहले दिन से ही भिटौली का यह महीना शुरू हो जाता है और पूरे महीने भर यह सिलसिला चलता रहता है और हर कोई अपनी सुविधा के अनुसार अपनी बेटी या बहन के घर पहुंचकर उसे भेंट करते हैं।
आज से कुछ वर्ष पूर्व तक जब कोई व्यक्ति भिटौली देने जाता था तो उसके घर में सुबह से ही कई प्रकार के व्यंजन बनाए जाते थे जिसमें पूरी,सेल,खीर, खजूरे होते थे उसके बाद यह सारे व्यंजनों को एक टोकरी में रखा जाता था और कपड़े से बाँध कर इसे या तो पीठ में रखकर या फिर सिर में रखकर बेटी के ससुराल ले जाया जाता था।
इसके साथ ही साथ बेटी के लिए फल ,मिठाइयां व वस्त्र भी ले जाते थे और बेटी के ससुराल में व्यंजनों को पूरे गांव के हर घर में बांटा जाता था।बेटी के ससुराल में मायके से आए इन मेहमानों की खातिरदारी के लिए तरह तरह के व्यंजन बनाए जाते थे इससे गांव में सामाजिक सौहार्द व भाईचारे को बढ़ावा मिलता था और रिश्तो में मजबूती आती थी।
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वक्त बदला भिटौली के उपहार भी बदले लेकिन बदलते सामाजिक परिवेश में इनका स्वरूप भी बदल गया है आज जहां लोग अत्यधिक व्यस्त है वही दूर संचार के माध्यमों ने लोगों के बीच की दूरी को घटाया है जहां पहले महीनों तक बेटियों से बातचीत नहीं हो पाती थी या उनको देखना भी मुश्किल हो जाता था।
आज स्मार्टफोन ,कंप्यूटर के जमाने में आप उनको आसानी से देख सकते हैं या उनसे आसानी से बात कर सकते हैं वह भी जब चाहो तब।
आज पहले की तरह ढेर सारे व्यंजन बनाकर ले जाते हुए लोग बहुत कम दिखाई देंगे।आजकल लोग मिठाई,वस्त्र या बेटी को जरूरत का कोई उपहार देते हैं और व्यस्तता के कारण भाई या मां-बाप बहन के घर नहीं जा पाते हैं तो पैसे भेज देते हैं आज कल पैसे भेजने के भी कई सारे तरीके हैं जो बहुत आसान हैं।
भिटौली देने के तरीके भले ही बदल गए हो लेकिन परंपरा आज भी जैसी की तैसी बनी है।
विवाहित बेटियों को भिटौली क्यों दी जाती है।
पुराने समय में लोगों के पास बहुत सारी जमीन व पशु होते थे और वही उस वक्त में जीविका का एक मात्र साधन भी वही थे जब बेटी ब्याह कर अपने ससुराल जाती थी तो उसे घर परिवार व खेती-बाड़ी के कामों से फुर्सत ही नहीं मिल पाती थी कि वह अपने मायके जाकर परिजनों से मिल सके और उस वक्त यातायात और दूरसंचार के साधन भी उतने ज्यादा नहीं थे।
इस महीने में पहाड़ों में खेती बाड़ी का काम थोड़ा कम हो जाता है जिससे महिलाएं व परिजन थोड़ी फुर्सत में रहते हैं इसीलिए यह महीना अपने विवाहित बेटियों या बहनों से मिलने जुलने का बनाया गया।
भिटौली की लोक कथा….
उत्तराखंड के हर गांव के घर घर में आज भी बड़े- बूढ़े इस कहानी को बड़े शौक से सुनाते हैं खासकर इस महीने में भिटौली की कहानी भाई बहन के अथाह प्यार से जुड़ी है। कहा जाता है कि देवली नाम की एक महिला अपने नरिया नाम के भाई से बहुत प्यार करती थी लेकिन जब बहन की शादी दूसरे गांव में हो गई वह चैत के महीना लगते ही अपने भाई का इंतजार करने लगी बिना कुछ खाए-पीए व बिना सोए इंतजार करने लगी ऐसे कई दिन बीत गए लेकिन किसी वजह से भाई नहीं आ पाया इस वजह से जिस दिन उसका भाई उसके घर आया वह उसका इंतजार करते-करते सो गई इस बीच भाई घर आया और अपनी बहन को सोता हुआ देख अपने साथ लाया उपहार व अन्य सामान सोती हुई बहन के पास रख कर उसे प्रणाम कर वापस अपने घर को चला गया क्योंकि अगले दिन शनिवार था।
और पहाड़ों में कहा जाता है कि शनिवार को न किसी के घर जाते हैं और न किसी के घर से आते हैं यह अपशकुन माना जाता है इसी वजह से भाई अपने घर चला गया। लेकिन जब बाद में बहन की नींद खुली तो उसने अपने पास रखा हुआ सामान देखा और उसे एहसास हुआ कि जब वह सोई थी तो उसका भाई आया और उस से बिना मिले बिना कुछ खाए- पिए भूखा-प्यासा ही वापस चला गया।
इस वजह से वह बहुत दुखी हुई और पश्चाताप से भर गई। और एक ही रट लगाए रहती थी। “भै भूखो- मैं सिती, भै भूखो- मैं सिती” और इसी दुख में उसके प्राण चले गए अगले जन्म में वह “न्योली “नाम एक चिड़िया के रूप में पैदा हुई
और कहा जाता है कि वह इस मास में आज भी दुखी रहती है और जोर-जोर से गाती है “भै भूखो- मैं सिती“ जिससे आप आराम से सुन सकते हैं।