रिपोर्ट- नैनीताल
नैनीताल- प्रसिद्ध भू वैज्ञानिक खड़ग सिंह वल्दिया का आज देहांत हो गया 88 वर्ष की आयु में बंगलुरु में आज दोपहर 3:30 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली अपने पीछे वल्दिया पत्नी व एक पुत्र को छोड़ गए है।
राजकीय इण्टर कालेज, पिथौरागढ़ से सन् 1953 में इण्टर करने के उपरान्त प्रो. वल्दिया लखनऊ विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा लिए आये और यहीं सन् 1957 में जिओलॉजी लैक्चरर नियुक्त हुए. साथ ही वे शोध कार्य में जुट गए. नेपाल से लेकर हिमाचल प्रदेश की सीमाओं तक फैले हिमालय का भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण उनके शोध अध्ययन का विषय बना.
उन्होंने ‘स्ट्रोमैटोलाइट’ और ‘पैलियोकरैन्ट’ का गहन अध्ययन कर हिमालय की उत्पत्ति एवं विकास के गूढ रहस्यों का नवीन वैज्ञानिक इतिहास उजागर किया. सन् 1963 में उन्हें पीएच-डी. की उपाधि मिली. परन्तु उन्हें अकादमिक ख्याति सन् 1964 की अंतरराष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संगोष्ठी में 3 चर्चित शोध-पत्र प्रस्तुत करने के बाद मिली. अब अंग्रेजी शोध-पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों के साथ-साथ हिन्दी में भी वल्दियाजी के विज्ञान लेख प्रमुखता से प्रकाशित होने लगे.
नवनीत, धर्मयुग, त्रिपथा, विज्ञान जगत और हिन्दुस्तान में उनके नियमित लेख लोकप्रिय हुए. विज्ञान की गूढ़ता को सरल भाषा में अनुवाद एवं नवीन पाठ्य पुस्तकों को तैयार करने में उनकी अभिरुचि पनपने लगी. आगे अध्यापन एवं प्रशासन एक लम्बा सिलसिला चला राजस्थान विश्वविद्यालय, वाडिया संस्थान, जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च और कुमाऊं विश्वविद्यालय. वे सन् 1981 में कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति रहे हैं.
‘जियोलाजी ऑफ़ कुमाऊं लैसर हिमालय’, ‘डायनामिक हिमालय’ उत्तराखंड टुडे, ‘हाई डैम्स इन द हिमालया’ जैसी 20 से अधिक अकादमिक पुस्तकों के रचियता प्रो. वल्दिया को उनके उत्कृष्ट वैज्ञानिक और सामाजिक योगदान के लिए शांतिस्वरूप पुरस्कार (1976), नेशनल मिनरल अवार्ड आफ ऐक्सलैंस (1997), पदमश्री (2007), आत्माराम सम्मान (2008), जी. एम. मोदी अवार्ड (2012) और पद्म विभूषण (2015) से नवाज़ा गया है.
रोचकता से भरी आत्मकथा ‘पथरीली पगडंडियों पर’
प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया अपनी आत्मकथा ‘पथरीली पगडंडियों पर’ में एक विज्ञानी, शिक्षक, प्रशिक्षक, प्रशासक, यायावर, लेखक, दार्शनिक, चिंतक, किस्सागोई, सामाजिक कार्यकर्ता और ठेठ उत्तराखंडी पहाड़ी किरदार के रूप में परिपूर्णता की ठसक लिए उपस्थित हैं.
इसमें रोचकता यह है कि ये किरदार एक दूसरे पर हावी न होते हुए अपनी स्वतंत्र पहचान बनाये हुए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के ‘एकला चलो रे’ रीति-नीति पर हर क्षण अनवरत चरैवेति-चरैवेति में मग्न हैं. शोध और शिक्षण के आजीवन साधक प्रो. वल्दिया की आत्मकथा का खूबसूरत पक्ष यह भी है कि उन्होंने अपने सम-सामयिक सामाजिक यर्थाथ को बिना लाग-लपेट के उद्घाटित कर दिया है. उन्होंने अपनी जीवनीय सफलताओं को श्रेष्ठ-जनों से मिली नेकी और असफलताओं को जीवन की नियति माना है.